आयुर्वेद का संक्षिप्त इतिहास
आयुर्वेद विश्व का ही नही ब्रह्माण्डका प्राचीनतम चिकित्सा विज्ञान है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। आयुर्वेद की उत्पति और इसके प्रारम्भ के सम्बन्ध में आयुर्वेद ग्रन्थों तथा अन्य हिन्दु ग्रन्थों में जो वर्णन है उसका संक्षिप्त रूप निम्न है।
सर्वप्रथम भगवान ब्रह्माजी ने अथर्व वेद से मंथन करके एक लाख श्लोकों कीब्रह्मसंहिता नाम की वैद्यक चिकित्सा विज्ञान की संहिता की रचना की (यह मौखिक थी अर्थव वेद भी मोखिक था कालान्तर में संभवतः लाखों वर्ष उपरान्त यह लेखनी बद्ध हुआ) वेद महान हिन्दु परम्परा में लाखों वर्षों तक गुरू शिष्य परम्परा में मौखिक चलते रहे।
ब्रह्माजी द्वारा पूज्य दक्ष प्रजापति जी ने एवं उनसे देव वैद्य अश्विनी कुमारों ने ग्रहण किया एवं इन्होने इसे देवराज इन्द्र को अध्ययन कराया।
दूसरी परम्परा में महादेव शिव, भी आयुर्वेद के प्रथम सृष्टाओं में से है। वे सम्भवतः रस तन्त्र व शल्यजरी के विशेषज्ञ थे। ऐसा माना जाता है (श्री गणेशजी व दक्ष प्रजापति के कटे धड़ पर हाथी व बकरे का सिर जोड़ा) पश्चात हुए वैद्य धनवन्तरी वे भगवान शिव व विष्णु के अंश माने जाते हैं। अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं व राक्षसों द्वारा किए गए समुद्र मन्थन के समय प्राप्त रत्नों मे से वैद्य धनवन्तरी भी एक थे। ये ब्रह्माण्ड पालक विष्णु व मृत्यु विजित भगवान शिव के अंश विश्व के सर्वप्रथम चिकित्सा विज्ञानी माने जाते है महान शल्यजन थे।
पहली परम्परा के अनुसार जब पृथ्वी पर अनेकानेक रोगों की उत्पति हो गई और गृहस्थ लोग कष्ट उठाने लगे तो महर्षि वर्ग ने हिमालय के सुरम्य भाग चैत्ररथ नामक स्थान पर एकत्र होकर विचार किया और अपनी आयुर्वेद का संक्षिप्त इतिहास दिव्य दृष्टि से जाना कि भगवान इन्द्र आयुर्वेद में निपुण है उनसे ज्ञान प्राप्त किया जाए। इस हेतु महर्षि भारद्वाज को सब प्रकार से योग्य जानते हुए सब ऋषियों ने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वर्ग जाकर देवराज इन्द्रजी से यह महान ज्ञान प्राप्त कर पृथ्वी पर लावें। भारद्वाज जी ने भगवान इन्द्र के पास जाकर पृथ्वी वासियों की समस्या व महर्षियों के वचनों के साथ प्रतिवेदन किया जिसे देवेन्द्र ने स्वीकार कर रोग निवृति के सिद्धान्तो एवं उपचारों को संक्षेप एवं सूत्र में महर्षि भारद्वाज को बताया तथा भारद्वाज जी ने इन महान विज्ञान को गहन अध्ययन कर कई ऋषियों को बताया व मिलकर वर्धन किया। आगे चलकर विश्व की सर्वप्रथम चिकित्सा कक्षा तथा पाठशाला व गोष्टी हिमालय के सुरम्य (देव को भी दुर्लभ) स्थान गंगोत्री से प्रारम्भ हुई जिसमें एक शत ऋषियों यथा आत्रेय, भृगू, विशिष्ट, कश्यप, वामदेव,अगस्त्य, पुलस्त्य, गौतम, कश्यप,अंगिरा, जम्दाग्नि, विश्वामित्र, कणाद, अग्निवेश आदि-आदि शिक्षा प्राप्त करते रहे। यहां तक यह परम्परा स्वर अर्थात मौखिक थी (हिन्दु धर्म के वेद, पुराण, शास्त्र, स्मृतियां इसी प्रकार बड़े लम्बे काल तक स्वर पर ही आधरित रही पश्चात महर्षि वेदव्यास जी ने लिपिबद्ध की थी इसीलिए हिन्दु धर्म के पुराने ग्रन्थों को श्रुति कहते हैं क्योंकि यह गुरू से शिष्यों ने श्रवण कर प्राप्त की और ऐसे ही गुरू से शिष्यों को सम्भवतः लाखों वर्षों तक ऐसे ही चलती रही) तथा पश्चात इन महर्षियों ने इस ज्ञान को विश्व में प्रचारित किया। पश्चात प्रातः स्मरणीय वन्दनीय महर्षि अग्निवेश जी महाराज ने इसे तऩ्त्र रूप में निबन्ध किया, वही तन्त्र निरन्तर परिष्कृत होते होते हमें आज चरक संहिता ये रूप में प्राप्त होता है।
इस उत्तरकाल में अनेकानेक गन्थों का सृजन हुआ । आयुर्वेद को उस काल की आवश्यकता के अनुरूप परिष्कृत करके ग्रन्थबद्ध व नियमबद्ध किया गया। आयुर्वेद के अनुसार यह काल भगवान नरसिंह से पूर्व का अर्थात छत्तीस लाख (36,00,000) से भी पूर्व का है परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इस काल को 5,000 वर्ष पूर्व मानते है। इस काल में आयुर्वेद के महान सृष्टा महर्षि चरक, शल्य जरी (सर्जरी) के प्रथम आविष्कारक महर्षि सुश्रुत, महर्षि वाग्भट, महर्षि चक्रदत, महर्षि हारीत, पाणिनी, पतंजलि, महर्षि शांर्गधर आदि-आदि अनेको महामनीषियों ने आयुर्वेद के महान ग्रन्थों का लेखन किया और इस कार्य में कड़ियॉं जुड़ती गई श्रृंखला बड़ी होती गई अनेकानेक ग्रन्थों की माला बढ़ती गई शोध कार्य होता गया। उस काल की प्रतिपादित औषधियां, निदान व नियम आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने कि तब थे। यहां तक कि नालन्दा विश्वविद्यालय में ग्यारहवीं सदी पूर्व तक एक हजार चिकित्सकों द्वारा शोध कार्य चलता था। इस विश्वविद्यालय में अति विशाल चिकित्सा विभाग था जहां सब प्रकार की चिकित्सा व सर्जरी आदि होती थी और यह क्रम निरन्तर 600 वर्षों से चल रहा था विशाल चिकित्सकीय पुस्तकालय था जहां हजारों हजार ग्रन्थों का संग्रह था जो कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा जलाकर नष्ट कर दिया गया ऐसी आधुनिक इतिहासकारों ने खोज की है। इस कारण से हजारों ग्रन्थ विलुप्त हो गए और मानवता के कल्याण के लिए की गई वैज्ञानिक शोध नष्ट हो गई जो कि एक भारी हानि मानवता केलिए हुई है फिर भी जो ग्रन्थ देश भर में वैद्यों के पास कहीं-कहीं सुरक्षित थे वो अनेकानेक वैद्यों ने प्रकाशित कराए हैं और आज भी आयुर्वेद के सैंकड़ो ग्रन्थ भारत में उपलब्ध है परन्तु बहुत से शोध कार्य नष्ट हो गए जिसके कारण कई रोगों की चिकित्सा व शल्य चिकित्सा आयुर्वेद में कम उपलब्ध है।फिर भी जो कुछ उपलब्ध है वह कम नहीं यदि आधुनिक काल के वैद्य मेहनत करें और ग्रन्थो का अध्ययन व अपनी चिकित्सा कार्य के अर्न्तगत साथ-साथ शोध कार्य करें तो अधिकतर रोगों की उत्तम चिकित्सा की जा सकती है और मानवता के कल्याण में बहुत बड़ा कार्य किया जा सकता है।
21वीं सदी के प्रथम वर्षों में अमरीका के विश्व के सबसे बड़े शोध संस्थान ने रामसेतु को उपग्रह द्वारा खोज कर निकाला जो कि रामेश्वरम तीर्थ से श्री लंका तक बना हुआ है जिसे भगवान राम ने रावण पर आक्रमण करने के लिए बनाया था इसकी आयु अनुसंधान से 18,00,000 लाख वर्ष बताई गई है जोकि भगवान राम के काल अर्थात त्रेता युग से मेल खाती है इस प्रकार आधुनिक साईंस ने भारतीय विज्ञान व काल गणना की पुष्टि कर दी है और भारतीय काल गणना के अनुसार सतयुग की आयु 17,28,000 वर्ष है और त्रेता युग की आयु 1264000 वर्ष है व द्वापर युग की आयु 8,32,000 वर्ष है तथा कल युग की आयु 4,16,000 वर्ष है अर्थात एक चर्तयुगी की आयु 42,40,000 वर्ष है और इस समय सृष्टि सम्वत 1,97,29,49,111 है यह वैवस्त मन्वन्तर चल रहा है कुल 14 मन्वन्तर है यह ब्रह्मा का 51वां वर्ष प्रारम्भ हुआ है शेष 50 वर्ष है अर्थात हमारे ब्रह्माण्ड के ब्रह्माजी की आधी आयु बीत गई है इसके पश्चात महा प्रलय होगी ।इस प्रकार भारतीय काल गणना लगभग 2 अरब वर्ष पुरानी है जबकि पाश्चात्य काल गणना मात्र 2000 वर्ष पुरानी है और हमारा ज्योतिष गणना विज्ञान बहुत विकसित है जो कि आने वाले 100 वर्षों तक की गणना करके सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, कुन्भ, व्रत उत्सव, मौसम, तारों ग्रहों की स्थिती का सही आंकलन करके बता देता है जब कि पाश्चात्य लोगों को इसका ज्ञान लगभग 100 वर्ष पहले तो बिलकुल नहीं था अब भी अधिक नही है। लिखने को तो इस विषय में बहुत है परन्तु यहां वह अप्रसांगिक होगा उदाहरण मात्र के लिए थोड़ा सा लिख दिया है।
जैसा कि आयुर्वेद के उद्देश्य एवं प्रयोजन से ज्ञात होता है कि यह चिकित्सा का विशेष विज्ञान है। आयुर्वेद चिकित्सा का संपूर्ण ज्ञान है, इसके चिकित्सा प्रकार में प्रमुख है जड़ी बूटी (काष्ट औषध) चिकित्सा, रस चिकित्सा (रस, रसायन, गोली वटी से) शल्य चिकित्सा। पश्चात रोगी एवं रोगियों के प्रकार के आधार पर अलग विभाग है।
हालांकि कालचक्र की गति से इस महान विज्ञान का अधिकांश भाग नष्ट हो गया है तो भी जो कुछ है उसका ठीक उपयोग हो तो अधिकांश रोगों को नष्ट करने की क्षमता रखता है।
आयुर्वेद की औषधियां एक लम्बे काल से सम्भवतःलाखों वर्षों तक मानवों तथा महामानवों, ऋषि-मनीषियों व देवताओं द्वारा प्रयोगित अनुभूत योग है। इन्हें भौतिक तरीकों से चूहों व खरगोशों पर नहीं बल्कि मानवों पर परीक्षण किया गया है। मानवों पर परीक्षण से पूर्व ऋषियों ने (जिस-जिस ऋषि ने जिस-जिस औषधी की खोज की) स्वयं पर ही परीक्षण किया। शोध खोजकर्ता वैज्ञानिक ऋषि मनीषी बहुत सूक्ष्म ग्राही (सैंसटिव) होते हैं वे औषध के गुण, दोषों, क्रिया का अति सूक्ष्म अध्ययन करके सार निकाल लेते हैं। (हम भी अपनी नई शोधों को प्रथमतः स्वयं पर परीक्षण करके ही गुण-दोषों को जांचते है) आयुर्वेद की लाखों औषधियां इसी प्रकार अविष्कृत हुई। कभी भी पशु - चूहे , खरगोश, सूअर आदि जिन पर ऐलोपैथी में शोधकार्य किया जाता है यह बताने में सक्षम नही होते कि इस दवा को खाकर हमें चक्कर आया या गर्मी लगी या घबराहट हुई या मूत्र कृच्छ हुआ या क्या तकलीफ हुई केवल रक्त या यकृत या अन्य अंगो का परीक्षण कर यह देखा कि क्या रोग बढ़ा और क्या घटा ये कोई सूक्ष्म वैज्ञानिक बात नहीं है जब ऋषि व मनीषी औषधी खाकर अपने उपर व अपने शिष्यों पर इसका सूक्ष्म अध्ययन करके शोध कार्य करते थे तो यह अधिक प्रामाणिक व अच्छा होता था। हमने अनेकानेक जड़ी बूटियों व दवाईयों के गुणों का सूक्ष्म अध्ययन पहले स्वयं खाकर किया है और अनेक नई-नई औषधियां बनाई है ऐसा ही डा. हैनीमैन व उनके साथियों ने अपने उपर औषधियों का अपने उपर प्रभाव का अध्ययन किया और नई पैथी होम्योपैथिक का अविष्कार किया। ऐसा ही ऐलोपैथिक के प्रणेता डा. मनीषियों हिप्पोक्रेटस, लुईपाश्चर विलियम हार्वे, मेरी क्यूरी आदि ने किया था।
आयुर्वेद का अर्थ है आयु = जीवन, वेद = विज्ञान अर्थात जीवन का विज्ञान जो जीवन का ज्ञान दे, बतावे, सिखावे।
काल- आयुर्वेद का सृजन सृष्टि के प्रारम्भ में जब मानव का उदय हुआ उसके कुछ समय बाद हुआ। समुद्र मन्थन के काल से व ब्रह्माजी से माना जाए तो करोड़ो वर्ष अन्यथा अगर सतयुग से माना जाए तो लगभग 36 लाख वर्ष आयुर्वेद की आयु बनती है, खैर जो भी हो, अभिप्राय यह है कि पूरे ब्रह्माण्डमें यह चिकित्सा पद्धति प्राचीनतम है तथा समय की कसौटी पर प्रमाणित है।
आज के युग में ऐलोपैथी और होम्योपैथी में उत्तम विकास हुआ है फिर भी अनेक रोगों की चिकित्सा ऐलोपैथी व होम्योपैथी में नहीं है और लोग बेहद परेशान हो कर आयुर्वेद की शरण में आते हैं लेकिन आयुर्वेद में भी बहुत से रोगों की संतोषजनक चिकित्सा नहीं हैं जैसा कि हमने ज्वरों व इन्फैक्शन वाले रोगों के बारे में लिखा है कि इनमें ऐलोपैथिक चिकित्सा आशु लाभकारी होती है।
आज विश्व के बड़े-बड़े डाक्टर इस बात को मान कर चल रहे हैं कि हमे चारों पैथियों को मिलाकर चिकित्सा करनी पड़ेगी और इसके लिए चिकित्सा पढ़ने वाले विद्यार्थियों को सब पैथियों का ज्ञान देना होगा। जैसे मेदान्ता हास्पिटल जो विश्व प्रसिद्ध हास्पिटल है जिसका मुख्यालय गुड़गांव मे है, के अध्यक्ष डा. त्रेहन जो कि विश्व प्रसिद्ध डाक्टर है अनेक बार टी. वी पर प्रवचन में इन्होंने आयुर्वेद और होम्योपैथिक के बारे में कहा है कि हमें इनके साथ मिलकर चिकित्सा करना मानवता के कल्याण के लिए जरूरी है। क्योंकि अनेक रोगों की चिकित्सा अभी तक ऐलोपैथी में नहीं है जो कि इन पैथियों में है। अतः चिकित्सकों को चाहिए कि सारी पैथियों का आवश्यक ज्ञान अवश्य सीखें और प्रैक्टिस में लावे तो रोगियों का और अपना अर्थात दोनों का कल्याण होगा।